मांडलगढ़ दुर्ग | भीलवाड़ा | Mandalgarh | Bhilwara | Rajasthan
कई दिनों से मांडलगढ़ दुर्ग मन में बसा था और फिर एक दिन रहा नही गया तो उदयपुर
से चित्तोडगढ,बस्सी,काटूँन्दा मोड़, लाडपुरा होते हुवे पहुच गए मांडलगढ़ दुर्ग जब तक
पहुचे चार बज चुकी थी और फोटोग्राफी के लिहाज से बस कुछ ही समय था मेरे पास में,
मगर ईश्वर की कृपा से दुर्ग में स्थित चारभुजानाथ के मंदिर में श्री एस.एल.सोनीजी
(मो.9602921209) मिल गए जो की पेशे से अध्यापक है और उनका पुश्तैनी मकान भी मांडलगढ़
दुर्ग में था, वही जन्मे खेले कूदे, दुर्ग के विद्यालय में ही पढ़े लिखे और आज भी
अपना ज्यादातर समय दुर्ग के चारभुजानाथ के मंदिर में धार्मिक कार्यो में व्यतीत
करते है और मांडलगढ़ दुर्ग के विकास के लिए प्रतिबद्ध है| वहा आने वाले प्रत्येक सरकारी अधीकारी/ कर्मचारी/ पर्यटकों
को दुर्ग के इतिहास के बारे में विस्तार से बताते है| अपनी मोटर साइकिल पर दुर्ग के प्रत्येक स्थल की निशुल्क
सैर करवाते है| |दुर्ग के संरक्षण और विकास के बारे में चर्चा करते है| मैंने सोनीजी के सहयोग
से मात्र दो घंटो में पुरे दुर्ग की सैर कर ली इतिहास जान लिया और फोटोग्राफी भी
कर ली| साधुवाद है सोनीजी को जिनके सहयोग से मै मांडलगढ़ की यादो को संजो कर अपने साथ ले आया | पुरातत्व विभाग के केयर टेकर श्री जमनालाल (
९९५०९३३३०६) भी बड़े सहयोगी रहे |
भीलवाड़ा से ४० किलोमीटर दूर स्थित मांडलगढ़ एक छोटा सा क़स्बा
है जहा रलवे लाइन पार करने के बाद कस्बा प्रारम्भ होता है और कुछ कदम आगे जाकर
तिराहे पर ख़त्म हो जाता है| तिराहे पर ही सिर उठाए खड़ा है अभेद मांडलगढ़ दुर्ग | तिराहे से दायी और
जाने पर जालेश्वर तालाब आता है जहा प्राचीन मंदीर बना हुवा है और शायद पुराने
जमाने में यही तालाब पेयजल और सिंचाई का प्रमुख जल स्रोत रहा होगा| और पुराने समय में
युद्ध की दृष्टी से भी ये जलाशय शत्रु के लिए बाधा उत्पन्न करता होगा|तालाब के सहारे जाने
वाली संकरी सड़क ही दुर्ग पर जाती है|
दुर्ग में प्रवेश के लिए सात पोल (दरवाजे) बनी हुई है| दुर्ग अंतिम दरवाजे
में प्रवेश करने से पूर्व बिसोत माता का
मंदिर आता है(देखे फोटोग्राफ)जिससे आगे जाने पर उन्डेश्वर महादेव का प्राचीन मंदिर
आता है जिसके गर्भ गृह के तल के अन्दर शिव
लिंग स्थापित है | मंदिर के ऊपर गुम्बद के अन्दर एक तहखाना बना हुवा है जिसमे
एस.एल.सोनीजी के कहे अनुसार श्री यंत्र निर्मित है (देखे फोटोग्राफ)जो की मंदिर
स्थापत्य की दृष्टी से अपने आप में अनूठा है | मंदिर के पास एक साधू की समाधि है जसके बारे में
कहा जाता है की उन्होंने वहा जीवित समाधि ली थी|
मंदिर के आगे रामस्नेही सम्प्रदाय के साधुओ का रघुनाथद्वारा
है और उसके सामने मोती महल है (देखे फोटोग्राफ) जिसके पास वाले भाग में कई वर्षो
पूर्व एक प्राइमरी स्कूल का संचालन होता था| मोती महल मांडलगढ़ दुर्ग के किलेदार अगरचंद जी
मेहता का निवास था जिन्हें महाराणा अरिसिंह जी ने नियुक्त किया था| मोती महल से आगे
जाने पर चारभुजानाथ जी का प्राचीन मंदिर है वर्तमान पुरे मांडलगढ़ दुर्ग में केवल इस
मंदिर में ही चहल पहल रहती है मंदिर के नीचे एक व्यायाम शाला संचालित है|मंदिर से थोडा आगे
जाने पर सागर नामक तालाब है जो दुर्ग के अन्दर प्रमुख जल स्रोत रहा था| सागर जलाशय से आगे
जाने पर जैन दिगंबर मंदिर (देखे फोटोग्राफ) आता है जिसे ऋषभदेवजी का मंदिर भी कहते
है उसके पास ही मयूरध्वज के दुर्ग के प्राचीन अवशेष देखे जा सकते है|जैन मंदिर के आगे
व्यास जी की हवेली है जो की पूर्णत खंडर में तब्दील हो चुकी है| उससे आगे जाने पर
मदीना मस्जिद (देखे फोटोग्राफ) आ जाती है जिसके सामने ही दुर्ग का दूसरा प्रसिद्द
जलाशय सागरी (देखे फोटोग्राफ) (देखे फोटोग्राफ)बना हुवा है और मस्जिद के पीछे
विशाल देव तालाब है जो की एक खाई के रूप में भी दुर्ग की रक्षा करता है| दुर्ग के दायी और
किशनगढ़ के राजा रूप सिंह जी द्वारा बनाए गए महल है (देखे फोटोग्राफ) जिसमे दुर्ग
का तोपखाना भी था और बाद में उसमे हाई स्कूल का संचालन होता था| राजा रूप सिंह जी
के महलो में लंबा सा सभा भवन बना हुवा है (देखे फोटोग्राफ) और महल के अनेक कक्षों
में बने झरोखों में से दुर्ग के बाहर मांडलगढ़ कसबे का विहंगम दृश्य देखा जा सकता
है|महल में एक कक्ष में सगसजी का स्थान है | मुख्य महल के ऊपर चारो कोनो में छतरी बनी हुई थी
जिसमे से एक छतरी ध्वस्त हो चुकी है | दुर्ग के बायीं और कचहरी भवन है (देखे फोटोग्राफ)वो
भी किसी महल के ही अवशेष प्रतीत होते है जिसमे ऊपर के भाग में बने कमरों के बाहर
एक शिलालेख लगा हुवा है (देखे फोटोग्राफ) इस भाग में जाने के लिए बड़ी घुमावदार और
छोटे पायदानों वाली सीढियों का निर्माण किया गया है जो की शायद शत्रु के लिए बाधक
होती होंगी (देखे फोटोग्राफ) इस महल के नीचे भी एक सगस जी का स्थान है श्री
एस.एल.सोनीजी के अनुसार पुरे दुर्ग में सात सगसजी के स्थान है और वो सातो आपस में
भाई थे|कचहरी के भवन के आगे दुर्ग में आने जाने का एक दूसरा दरवाजा है (देखे
फोटोग्राफ)जिसके आगे सीढ़िया का मार्ग बना हुवा है जो शायद कस्बे तक जाता है| यहाँ से झालेश्वर
जलाशय और क़स्बे का सुन्दर दृश्य देखा जा सकता है और यहाँ से सूर्यास्त के सुन्दर
नज़ारे का आनंद लिया जा सकता है|बिसोत माता मंदिर से आगे वाले दरवाजे से निकलने पर
दायी और बालाजी का मंदिर है(देखे फोटोग्राफ) और एक छतरी भी बनी हुई है जहा से नीचे
की तरफ महाराणा सांगा का समाधि स्थल (छतरी) दिखाई देती है| (देखे फोटोग्राफ)
मांडलगढ़ के इतिहास के बारे में गौरीशंकर हीराचंद ओझा की पुस्तक उदयपुर का इतिहास
से अमूल्य जानकारी प्राप्त होती है मांडलगढ़ दुर्ग के बारे में ओझा साब लिखते है की
“मांडलगढ़ दुर्ग के निर्माण के बारे में एक जनश्रुति है की ‘ मांडिया ‘ नामक भील को
बकरिया चराते समय पारस पत्थर मिल गया था जिस पर उसने अपना तीर घीसा तो वो स्वर्ण
का बन गया था यह देख कर वो उस पत्थर को चानणा नामक गुर्जर के पास लेकर गया जो वहा
अपने पशु चरा रहा था और उससे बोला की इस पत्थर पर घिसने के बाद मेरा तीर खराब हो
गया है | चानणा गुर्जर उस
पत्थर की करामत समझ गया और उसने वो पत्थर मांडिया से ले लिया और उस पत्थर की
सहायता से धनाढ्य हो जाने के बाद उसने ये दुर्ग बनवाया और इस दुर्ग का नाम मांडिया
के नाम पर मांडलगढ़ दुर्ग रखा| यह दंतकथा
कल्पनामात्र प्रतीत होती है |एक शिलालेख में इसको मंडला कृति (वृताकार) गढ़ कहा
है अतएवं संभव है की इसकी आकृति मंडल (वृत) के सामान होने से ही इसका नाम मांडलगढ़
प्रसिद्द हुवा हो|
यह किला अजमेर के चौहानों के राज्य में था संभव है की
उन्होंने ही इसे बनवाया हो | जब कुतुबुद्दीन ऐबक ने अजमेर का राज्य सम्राट
पृथ्वीराज के भाई हरिराज से छीना तब इस किले पर मुसलमानों का अधिकार हुवा, परन्तु
थोड़े ही समय बाद हाडोती के चौहानों ने इसे
मुसलमानों से छीन लिया और जब हाड़ो को महाराणा क्षेत्रसिंह ने अपने अधीन किया तब से
ये दुर्ग मेवाड़ के अधिकार में रहा हालांकि बीच बीच में मुग़ल बादशाहों ने इसे
सिसोदियो से लेकर दुसरे लोगो को दे दिया किन्तु मेवाड़ के महाराणाओं ने हर बार पुन
इस पर अधिकार कर लिया|
यह गढ़ समुद्र की सतह से १८५० फुट ऊँची पहाड़ी के अग्र भाग पर
बना हुवा है और इसके चारो और अनुमान आधा मील लम्बाई का बुर्जो सहित कोट बना हुवा
है| किले के उत्तर की और अनुमान आधा मील से कम अंतर पर एक पहाड़ी नकटी का चौड,
बीजासण आ गई है जो किले के लिए हानिकारक है ( तत्कालीन समय में युद्ध की दृष्टी
से) गढ़ में सागर और सागरी नाम के दो जलाशय है जिनक जल दुष्काल में सुख जाया करता
था इसलिए वहा के हाकिम अगरचंद मेहता ने सागर में दो कुंवे खुदवा दिए, जससे जल कभी
नहीं टूटता’ है|यह किला कुछ समय तक बालनोत सोलंकियो की जागीर में भी रहा था| यहाँ एक ऋषभदेव जैन
मंदिर, उन्डेश्वर और जलेश्वर के शिवालय, अल्लाउद्दीन नामक मुसलमान अफसर की कब्र और
किशनगढ़ के राठोड रूप सिंह के जिनके अधिकार में बादशाह की तरफ से कुछ समय तक ये
किला रहा था के महल भी है|”
राणा हम्मीर के समय तक हाड़ो का सीसोद्यो से मैत्री पूर्ण
सम्बन्ध था और वो सिसोदियो के मातहत थे और बूंदी को मीना जनजाति से लेने में
हम्मीर ने हाडा देवीसिंह की सहायता भी की थी किन्तु हम्मीर के बाद उसके उतराधिकारी
महाराणा क्षेत्रसिंह ने मांडलगढ़ पर आक्रमण कर हाड़ो को पराजित किया और उन्हें अपना
मातहत बनाया और मांडलगढ़ किला लिया नहीं वरन उसे (तोडा) केवल अपने अधीन किया | इसी प्रकार महाराणा
क्षेत्रसिंह ने बमबावदे के हाडाओ को भी अपने अधीन किया था| क्षेत्रसिंह के मांडलगढ़ को अपने अधीन करने संबंथी
तथ्य की पुष्टि निम्न शिलालेखो से भी होती है
कुम्भलगढ़ के विक्रम संवत १५१७ तदनुसार १४६० के अभिलेख में
लिखा है की क्षेत्रसिंह ने हाडावती (हाडौती) के स्वामियों को जीत कर मंडल देश अपने
अधीन किया और उनके करान्तमंडल, मंडलकर ( मांडलगढ़) को तोडा
|
|
एकलिंग जी के दक्षिण द्वार के शिलालेख जो की विक्रम संवत
१५४५ तदनुसार १४८८ का है के अनुसार क्षेत्रसिंह ने मंडलकर के प्राचीर को तोड़कर
उसके भीतर के योधाओ को मारा तथा युद्ध में हाड़ो के मंडल को नष्ट कर उनकी भूमि को
अपने अधीन किया |
श्रंगीऋषि के विक्रम संवत १४८५ तदनुसार १४२८ के शिलालेख में मांडलगढ़ के बारे में लिखा है की राजा क्षेत्र सिंह ने अपने भुजबल से शत्रुओ को
मारकर प्रसिद्द मंडलाकृति को तोडा जिसे बलवान दिल्लीपति अदावदी ( अल्लाउद्दीन)
स्पर्श भी न कर पाया था |
महाराणा कुम्भा के समय भी मांडू के सुलतान महमूद खिलजी ने
कुम्भलगढ़ में असफल होने पर सन 1446 में मांडलगढ़ पर चढ़ाई की थी किन्तु उसमे भी उसे
असफलता मिली थी हालाकि मुस्लिम लेखक फ़रिश्ता ने लिखा है की ता० २० रज्जब हिजरी
संवत ८५० ( कार्तिक वदी ६ विक्रम संवत १५०३ ताद्नुसार ११ अक्टूबर १४४६) में सुलतान ने मांडलगढ़ पर विजय प्राप्त करने के
लिए कुंच किया जहा राणा कुम्भा मुकाबले के लिए तैयार था| राजपूतो ने सुलतान का घेरा उठाने के लिए उस पर
अनेक बार हमला किया किन्तु वे असफल रहे बाद में राणा कुम्भा ने बहोत सा धन हीरे
जवारात देकर सुल्तान से सुलह कर ली थी| ओझा साब के अनुसार उपरोक्त कथन पूर्णतया असत्य है |
महाराणा रायमल के समय ( इसवी १४७३- १५०६ ) में भी मांडलगढ़
में महाराणा और मांडू के सुलतान रायासुद्दीन के सैनापति जफ़र खा के मध्य युद्ध हुवा था जिसमे जफ़र खा
पराजित होकर मालवे लौट गया था | उक्त विजय का वर्णन एकलिंग जी के मंदिर के दक्षिण
द्वार की प्रशस्ति में किया गया है जिसके अनुसार मेदपाट ( मेवाड़) के अधिपति रायमल
ने मंडल दुर्ग के पास जाकर जाफर के सैन्य का नाश कर शकपति ग्यास के गर्वोन्नत सर
को नीचा कर दिया|वहा से रायमल मालवे की तरफ बढा और खैराबाद की लड़ाई में यवन
सेना को तलवार के घात उतार कर मालवा वालो को दंड दिया और अपना यश बढाया|
मांडलगढ़ पर १५ वी शताब्दी में मांडू के सुलतान ने अधिकार कर
लिया था ?
महाराणा सांगा और बाबर के मध्य १५२७ में खानवा में हुवे
युद्ध में जब बाबर के तोपखाने के कारण महाराणा सांग की सेना पराजित हुई और महाराणा
सांगा घायल हो गए थे और जब होश में आये तो उन्होंने प्रण लिया की जब तक वो बाबर से
जीत नहीं जाते तब तक चित्तोड़ वापस नहीं जायेंगे| बाद में उन्हें सुचना मिली की बाबर ने चंदेरी पर
आक्रमण कर दिया है अत राणा संगा चंदेरी के शासक मेदिनी राय की सहायता के लिए वहा
गए किन्तु मार्ग में उनके ही सामंतो द्वार्रा विष दिए जाने के कारण ३० जनवरी १५२८
को कालपी के नजदीक इरिच में उनकी मृत्यु हो गई थी और उनका दाह संस्कार उनके
चित्तोड नहीं जाने के प्रण के कारण मांडलगढ़ में किया गया था| दुर्ग में नीचे की तरफ राणा सांगा की समाधि बन हुई
है ( देखे फोटोग्राफ)
मुग़ल सम्राट अकबर के समय मांडलगढ़ पर मुगलों का आधिपत्य हो
गया था अकबर ने १५६७ में अपने चित्तोड़ अभियान के दौरान शिवपुर और कोटा के किलो पर
अधिकार कर गागरोन पहुंचा और वहा से आसफ खा और वजीर खा को मांडल गढ़ भेजा जो की उस
समय तक महाराणा उदय सिंह के प्रमुख दुर्गो में से एक था और वहा का किलेदार बल्लू
सोलंकी था जिसे पराजित कर अकबर के सिपहसालारो ने मांडलगढ़ दुर्ग पर अधिकार कर लिया|
महाराणा प्रताप से अमर सिंह तक सिसोदियो और मुगलों के
युद्ध के दौरान भी मांडलगढ़, मोही, मदारिया मुगलों के प्रमुख थाने (चौकिया)
थी| कहते की जयपुर के कछवाहा वंश के कुंवर मानसिंह ने
हल्दीघाटी युद्ध से पूर्व एक माह तक इस दुर्ग में रह कर शाही सैना को युद्ध के लिए
तैयार किया था|
१६५० में इस दुर्ग को शाहजहा ने किशनगढ़ के राजा रूप सिंह को
जागीर में दे दिया था जिसने इस दुर्ग पर एक महल का भी निर्माण करवाया था जिसे
रूपसिंह के महल कहते है | १६६० में महाराणा राजसिंह जी ने पुन इस दुर्ग पर अधिकार कर
लिया था| उसके बीस वर्ष बाद औरंगजेब ने मांडलगढ़ को अपने कब्जे में ले लिया और पीसांगन
के राजा जुझार सिंह को दे दिया जिस पर पुन १७०६ में मेवाड़ के महाराणा अमर सिंह
द्वितीय ने अधीकार कर लिया जिसके बाद स्वतंत्रता तक मेवाड़ के राणाओ के अधिकार में
रहा| महाराणा अमरसिंह द्वितीय ने शाहपुरा
वालो को १७६८ में मांडलगढ़ का जागीरदार
बनाया था | महाराणा अरिसिंह जी के समय १८२२ में मेहता अगरचंद को मांडलगढ़ का प्रशासक नियुक्त
किया गया था जिन्होंने सागर तालाब में दो कुवो का निर्माण करवाया था और मांडलगढ़
स्थित मोती महल या मेहता निवास आज भी मेहता परिवार की सम्पति है|
No comments:
Post a Comment