Thursday, 1 December 2016

शनिवारवाडा- पूना, महाराष्ट्र -Shaniwarwada

शनिवारवाडा- पूना, महाराष्ट्र
एक वक्त था जब सारा हिन्दुस्तान पूना में स्थित शानिवारवाडे से खौफ खाता था और बड़े बड़े राजे महाराजे शनिवारवाडे की तरफ अपनी नजरे जमाये रखते थे की न जाने उसका अगला कदम क्या हो? क्या आप जानते है ये शनिवारवाडा क्या था? जी हा ये निवास स्थान था मराठा साम्राज्य के सर्व विजयी पेशवा बाजीराव बल्लाल का  जिनकी तलवार की चमक के सामने या तो शत्रुओ के सर कटते थे या झुकते थे|

पेशवा बाजीराव बल्लाल पुत्र थे प्रथम पेशवा बालाजी विश्वनाथ के जिन्होंने शिवाजी के पोते और शम्भाजी के पुत्र  शाहू महाराज को औरंगजेब की कैद से छुटने के बाद उन्ही की चाची ताराबाई के विरुद्ध राज्य प्राप्त करने में सहयोग दिया, सतारा की राजगद्दी पर आसीन करवाया और जिसके बदले शाहू महाराज ने पेशवा का पद पीढी दर पीढी के लिए दे दिया|बालाजी विश्वनाथ पुणे से पच्चीस किलोमीटर दूर सासवड से पेशवाई करते थे और उनकी म्रत्यु के उपरान्त मात्र १९ वर्ष की आयु में पेशवा बने उनके पुत्र बाजीराव बल्लाल ने भी आरम्भ के पांच छः साल तक वही से पेशवाई की किन्तु जैसे जैसे साम्राज्य के बढ़ने के साथ साथ कार्यभार बढ़ता चला गया और सासवड में हजारो सिपाहियों ओर वकीलों और अन्य राज्य कर्मचारियों का बसेरा होने लगा और वहा रहने वाले ग्राम वासियों के लिए और अन्य सभी के रहने और पेय जल की किल्लत महसूस की जाने लगी तब पेशवा बाजीराव ने पुणे में बसने का निश्चय किया|

पुणे की जलवायु स्वास्थ्यवर्धक थी वहा मुला और मुठा नदियों का संगम होता था|खेती बाड़ी और फसलो की पैदावार खूब होती थी और पुणे के चारो तरफ सिंहगढ़, राजगढ़, तोरणा, पुरंदर जैसे अभेद दुर्ग थे जो साम्राज्य की रक्षा करने में सक्षम थे| और सबसे बड़ी बात ये थी की स्वय छत्रपती शिवाजी महाराज ने भी पुणे से ही सम्पूर्ण हिन्दुस्तान में हिन्दुपातशाही का स्वप्न देखा था और उनके निवास के लिए वहा लाल महल का निर्माण भी करवाया गया था| अत उपरोक्त समस्त तथ्यों से प्रभावित होकर पेशवा बाजीराव बल्लाल ने पुणे से पेशवाई करने का निर्णय लिया| शाहु महाराज की अनुमति प्राप्त कर बाजीराव ने पुणे जो की तब केवल कस्वा नामक ग्राम था के लाल महल के समीप मछुआरो की बस्ती वाली भूमि पर अपना आवास बनाने का निर्णय लिया|कहते है की यहाँ से जब बाजीराव गुजर रहे थे तो एक खरगोश से डर कर एक शिकारी कुत्ता भाग रहा था तब बाजीराव को ये भूमि अद्भुत महसूस हुई और उन्होंने यही अपना निवास निर्मित करने का निर्णय लिया| मछुहारो को मुआवजा देकर दूसरी जगह बसाया गया और १० जनवरी १७३० को शानिव्वर, सौम्य्नाम संवत्सर, माघ शुद्ध ३ शके १६५१ के शुभ मुहर्त में यहाँ भूमि पूजन किया गया| शनिवार वाडे का निर्माण पेशवा के सहायक शिवराम कृष्ण लिमिये की देखरेख में हुवा| शनिवारवाडे में पेशवा के महलो में चित्रकारी के लिए जयपुर से चित्रकारों को बुलाया गया था|बाद में बाजीराव ने अपनी दूसरी पत्नी और प्रेयसी मस्तानी के लिये भी शनिवारवाडे में बायीं तरफ कोने में एक महल बनवाया था जिसमे जाने के लिए एक प्रथक दरवाजा है जिसे मस्तानी दरवाजा कहा जाता है |

बाद में जब सम्पूर्ण हिन्दुस्तान में मराठा साम्राज्य का विस्तार करने वाले और अफगानिस्तान तक अपने राज्य की सीमाओं को अपनी तलवार के बल पर फैलाने वाले पेशवा बाजीराव बल्लाल को उनकी विजातीय प्रेयसी और दूसरी धर्मपत्नी मस्तानी को लेकर उन्ही के स्वजनों और उन्ही के आश्रय पर पलने वाले स्वजातीय ब्राह्मण समाज द्वारा जब निरंतर बाजीराव का बहिष्कार किया गया और उनकी पत्नी मस्तानी को अनेक यातनाये यातनाये दी गई तो उसे बाजीराव बर्दाश्त नहीं कर पाए और घरेलु अशांति के कारण युद्ध के दौरान मध्यप्रदेश के नर्मदा नदी के किनारे रावडखेडी के पास वे बीमार पड गए और अत्याधिक ज्वर में मानसिक संतुलन खोकर १८ अप्रेल १७४० को मराठा सिंह ने प्राण त्याग दिए |

बाजीराव बल्लाल के बाद उनके पुत्र नानासाहेब पेशवा बने जिनकी पेशवाई में सम्पूर्ण भारत में मराठा पताका फ़ैल गई और उन्ही के समय शनिवारवाडे की चार दिवारी का निर्माण हुवा|किन्तु १७६१ में हुवे पानीपत के युद्ध में अहमद शाह अब्दाली से हुई हार से सम्पूर्ण साम्राज्य समाप्त हो गया और युद्ध में हुवे भयंकर नरसंहार के कारण लगभग प्रत्येक मराठे परिवार के एक सदस्य की म्रत्यु हो गई और नाना साहब इस असीम दुःख को सहन नहीं कर पाए और पुणे के पार्वती मंदिर की पहाड़ी पर चल बसे ,नाना साहेब के बाद उनके पुत्र माधवराव पेशवा बने और उनके बाद उनके पुत्र नारायण राव पेशवा बने किन्तु तब तक शनिवारवाडा षडयंत्रो का केंद्र बन गया और नारायण राव के रिश्ते के दादा और नाना साहेब के छोटे भाई रघुनाथ राव (राघोबा) ने पेशवा बनने के लिए नारायण राव की बड़ी न्रशंश्तापूर्वक हत्या करवा दी और बाद में पेशवा बन गए किन्तु नारायण राव के मंत्री नाना फडवनिस जो की अत्यंत चतुर थे ने बड़ी चतुराई से नारायणराव की गर्भवती पत्नी को सुरक्षित जगह रखा और बाद में पुत्र उत्पन्न होने पर बड़े ठाठ बाठ से उसे सवाई माधव राव को पेशवा बनाया और उसकी ताजिंदगी रक्षा की| सवाई माधव राव के कार्यकाल के दौरान ही टीपू सुलतान की मराठो के विरुद्ध मुस्लिम निति के कारण, टीपू सुलतान के विरुद्ध  मराठो और अंग्रेजो के मध्य १ सितम्बर १७७१ में शनिवारवाडे के गणेश महल में एक संधि हुई थी| सवाई माधव राव भी अपने पिता की तरह दुर्बल मानसिक शक्ति वाले थे और एक दिन कूद कर फव्वारे में गिर कर आत्महत्या कर ली | सवाई माधवराव के बाद राघोबा के पुत्र बाजीराव द्वितीय पेशवा बने जो अत्यंत कपटी और डरपोक स्वभाव के थे उन्हें शनिवारवाडे में आवाजे सुनाई देती थी इसलिए उन्होंने शनिवारवाडे में रहना ही छोड़ दिया और एक समय ऐसा भी आया की वो अपने ही सरदारों के डर से मारे मारे भागते फिरे |

शनिवारवाडे के अवशेषों और पुराने दस्तावेजो के आधार पर हम इसकी चार दिवारी के भीतर बने हुवे महलो और भव्यता का केवल अनुमान लगा सकते है| शनिवार वाडे के चौकोर परकोटे का मुख्य दरवाजा दिल्ली दरवाजा कहलाता है जिसके बायीं तरफ मस्तानी दरवाजा है और परकोटे के दाए वाले भाग में खिड़की दरवाजा बना हुवा है और उसके आगे गणेश दरवाजा बना हुवा है जो की पेशवा से मिलने आने वाले कुलीन लोगो के प्रयोग में लाया जाता था और पेशवा के परिवारजन और मित्र भी इसी दरवाजे से आते जाते थे|परकोटे के पीछे की तरफ नानावाडे की तरफ नारायण दरवाजा है| परकोटे के दायी और कोई दरवाजा नहीं है | परकोटे का मुख्य विशाल दरवाजा दिल्ली दरवाजा कहलाता है जिसमे प्रवेश करते ही बाहर वाला चौक था जिसके आगे हौज बने हुवे थे और उसके आगे कुछ सीढीया चढ़ कर कार्यालय, चाफेखानी पर पेशवाकी गद्दी थी और पास ही जवाहरखाना बना हुवा था जो एक प्रकार का खजाने का कक्ष था और दूसरी तरफ बड़ा दीवानखाना बना हुवा था जिसके आगे बकुली का चौक, और मध्य में चीमण बाग़ बना हुवा था और उसके पास गौशाला बनी हुई थी जिसके आगे मस्तानी का महल था|

शनिवारवाडे में जल हेतु कात्रज तालाब से शनिवारवाडे तक नहर या नाली बना कर जल उपलब्ध करवाया गया था जो की सर्वप्रथम गणेश दरवाजे के पास पानी का खजाना नामक टंकी में आता था जहा से सम्पूर्ण शनिवार वाडे के कुवो, फव्वारों, और स्नानग्रहों में जाता था | जल की प्रचुरता होने के बावजूद भी कहते है की शनिवारवाडा के महल का वास्तु ही कुछ इस प्रकार का था की वहा अनेक बार आग लगी जिसमे पहली आग 7 जून १७९१ को लगी जिसमे सवाई माधवराव के समय बने 7 मंजिल के महल में उपरी ५ मंजिले भस्म हो गई और केवल  मंजिले ही बची थी | दूसरी बार १८०८ में जवाहर खाने में आग लगी जिसमे बहुमूल्य रत्न , अन्य राज्यों के साथ किये गए समझोते के दस्तावेज और अन्य जवाहारात जल कर ख़ाक हो गए थे|24 फरवरी १८१२ को तीसरी आग लगी जिसमे सातखानी महल की दो मंजिले जल कर ख़ाक हो गई और बाजीराव का पसंदीदा आसमान महल जल कर ख़ाक हो गया था |१९सितम्बर १८०१३ को दुसरे बाजीराव द्वारा बनाया हुवा महल भी आग लगने से जल कर ख़ाक हो गया |और आखिर में १६ नवम्बर १८१७ को येवरडा में हुवे युद्ध में अंग्रेजो की विजय और मराठो पर अंग्रेजो के प्रभुत्व के बाद और शानिवारवाडे पर अंग्रेजो का कब्जा हो जाने के बाद २१ फरवरी १८२८ को  आखिरी पांचवी आग लगी जिसमे पुरे आठ दिन तक शनिवारवाडा जलता रह किन्तु उसे बुझाने की कोई कोशिश नहीं की गई और एक के बाद एक करके सारे महल राख के ढेर में तद्बील हो गए|इस प्रकार एक समय सम्पूर्ण भारत में आग के गोले की तरह धधकता शनिवारवाडा स्वयं षडयंत्रो के आग की भेट चढ़ गया|

एक बार हो आइये शनिवारवाडा शायद आपके सजल नेत्रों से गिरी दो बुँदे भारत के गौरव के प्रतिक इस भवन और इसे बनाने वाले परमवीर योद्धा पेशवा श्रीयुत बाजीराव बल्लाल को श्रद्धांजली प्रदान कर सके| कोटि कोटि नमन है भारत माता के सपूत बाजीराव बल्लाल को |  जय जय .....शरद व्यास ....०२-१२-१६ .....उदयपुर 


 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 

 

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