Saturday 16 March 2024

मकरमण्डी माता का मंदिर । निमाज

 मकरमण्डी माता का मंदिर -निमाज

जब कला अपने सर्वोच्च आयाम को छूती है तो वो कभी काल कवलित नहीं होती वरन कालजयी हो जाती है ये तथ्य पाली जिले के निमाज में स्थित मकरमण्डी माता के मंदिर की स्थापत्य कला के साथ सौ फीसदी मेल खाता है। इस मन्दिर को देखकर ऐसा प्रतीत होता है मानो तत्कालीन शिल्पकारों को पाषाण से स्वर्ण निर्मित करने और पाषाणों में प्राण प्रतिष्ठा करने के गुप्त सूत्रों का ज्ञान था।
प्रतिहार शासको एंव चालुक्य शासको का कालखण्ड स्थापत्य की दृष्टि से राजस्थान का स्वर्णिम युग था। राजस्थान के अनेक क्षेत्रो यथा किराडू, ओसिया, मंडोर, बुचकला, गोठ मांगलोद, निमाज, आभानेरी, चित्तौड़गढ़, जगत, सीकर आदि में उत्कृष्ट स्थापत्य संरचनाये देवालयों, बावड़ियों, जलाशयों आदि के रूप में मौजूद है। शासको की कीर्ति उनके द्वारा बनवाये गए देवालयों और जल सरंचनाओं के कारण आज भी अक्षुण्ण है।
ऊँची जगती पर स्थित मकरमण्डी माता मंदिर की योजना में अलंकृत स्तम्भों युक्त सभा मंडप, अंतराल, अन्तर प्रदक्षिणा युक्त गर्भगृह है। गर्भगृह में चबुतरे पर काले पाषाण से निर्मित महिषासुरमर्दिनी माताजी की प्रतिमा स्थापित है। मंदिर के गर्भगृह के बाहर प्रवेश द्वार के ललाट पट्ट पर आसनस्थ नवग्रहों की प्रतिमाए तथा प्रवेश द्वार की चैखट के दोनों तरफ युगल, मदनिका आदि की आकृतियाँ उत्कीर्ण है। द्वार के दोनो तरफ मकरवाहिनी गंगा तथा कच्छप वाहिनी यमुना की सुन्दर प्रतिमाये शिल्पांकित है। वायु और प्रकाश के लिये प्रदक्षिणापथ में तीन तथा महामंडप के पाश्र्व में दो स्तंभयुक्त वातायन है। मंदिर के बाहरी मंडोवर भाग पर आठो दिशाओ के पालक दिग्पाल तथा सरस्वती, पार्वती, कार्तिकेय और गणेशजी की प्रतिमाये शिल्पांकित है। मंदिर का शिखर भाग पूर्णत नष्ट हो चूका है। सभामंडप के अलंकृत स्तम्भ घट पल्लव और लता पत्रको से सुसज्जित है। कलात्मक कीर्तिमुखो कि सुन्दरता तो देखते ही बनती है। मंदिर परिसर में चारो तरफ तथा परिसर में स्थित एक कक्ष में मंदिर के खंडित अवशेष बिखरे पड़े है।
मन्दिर परिसर में लगे पुरातत्व एंव संग्रहालय विभाग के शिलालेख के अनुसार महिषासुरमर्दिनी को समर्पित यह मन्दिर नवी एंव दसवी शताब्दी की स्थापत्य शैली का प्रतिनिधित्व करता है। मन्दिर के कालखण्ड के निर्धारण के उपरोक्त आधार पर मन्दिर को प्रतिहारकालीन माना जा सकता है। उदयपुर के इण्डोलाॅजिस्ट डाॅ श्री कृष्ण जुगनू जी के अनुसार सोमपुरा शिल्प शैली में निर्मित यह मन्दिर मूलतः महिषासुर मर्दिनी का प्रसाद है और चालुक्य काल की स्थापत्य कला का बेहतरीन उदाहरण है।
प्राचीन मन्दिरों पर काल के अनेक खण्डो का आवरण होता है।अनेक मंदिरो में मिश्रित स्थापत्य शैली को देखकर ये प्रतीत होता है की मन्दिर के जिर्णोद्वार में उत्तरवर्ती विजित शासको द्वारा पुर्ववर्ती शासको के कीर्तिलेखों को विलोपित कर दिया जाता होगा। जिर्णोद्वार में शासको एंव शिल्पकारों के बदलने से स्थापत्य शैली में बदलाव होना स्वाभाविक है। अनेक मन्दिरों में तत्कालीन शासको द्वारा मूल प्रतिमा के खण्डित होने पर अथवा उसे हटा कर अपने अराध्य देवी देवताओं की प्रतिमाए स्थापित किए जाने के उदाहरण भी है।
शरद व्यास (16 मार्च 2024)






































































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