मंदेसर के सूर्य मंदिर की कहानी डॉ. श्रीकृष्ण 'जुगनू' की जुबानी
उदयपुर अंचल में 7वीं-8वीं शताब्दी से लेकर 11वीं सदी तक सूर्य मंदिरों का निर्माण हुआ। इस क्षेत्र में सूर्य पूजक मग विप्रों, शाकद्वीपीयों के प्रसार के साथ-साथ कुछ स्थानों पर सूर्य मंदिर 13वीं तक भी बनते रहे। चित्तौड्गढ़ का वर्तमान कालिका माता मंदिर मूलत: सूर्य मंदिर है। उदयपुर के महाराणा प्रताप हवाई अड्डे के पास एक सूर्य मंदिर मंदेसर गांव में है। यह गांव मूलत: मगेसर था। मेवाड़ में सर नामांत वाले भदेसर, नांदेसर की तरह ही मंदेसर गांव भी बहुत पुराना है। (मेवाड़ का प्रारंभिक इतिहास : श्रीकृष्ण जुगनू, चतुर्थ अध्याय) उदयसागर से निकलने वाली बेड़च नदी इसके पास ही होकर बहती है। इसके कुछ आगे महाराज की खेड़ी गांव है जहां पिछले बरस हुए पुरातात्विक उत्खनन में आहाड़ सभ्यता के समकालीन अवशेष मिले हैं।
मंदेसर का सूर्य मंदिर उसकी स्थापत्य रचना के आधार पर 10वीं सदी का माना गया है किंतु यह होना 9वीं सदी का चाहिए क्योंकि इसमें दिक्पाल दो भुजाओं वाले हैं और उनका विधान प्राचीन शिल्प की परंपरा को लेकर हुआ है। उनके आभरण-अलंकरण भी उसी काल के दिखाई देते हैं। निश्चित ताल-मान के आधार पर ही यहां की मूर्तियां बनी हैं जिनमें सभामंडप की सुरसुंदरियों पर तस्करों की बराबर नजर रही है। मूल प्रतिमा तो सालों पहले ही नदारद हो गई है और ग्रामीणों ने बंसी वाले श्याम की प्रतिमा विराजित कर रखी है। हवाई अड्डे पर हवाई जहाज से उतरते समय इस मंदिर की एक झलक दिखाई देती है।
पूर्वमुखी यह मंदिर प्रवेश मंडप, सभा मंडप और गर्भगृह- इन तीन स्तरों पर नागर शैली मं बना है। मूलशिखर अब नहीं रहा किंतु, मंडप से लेकर गर्भगृह की बाहरी भित्तियों पर मूर्तियां खंडित ही सही, मगर मौजूद है। इनमें सूर्य के स्थानक और सप्ताश्वों पर सवार रूप की मूर्तियां अपने सुंदर सौष्ठव-सुघड़ता और भव्य भास्कर्य के लिए पहचानी जाती हैं। निर्माण काल के करीब एक हजार साल बाद भी इनका भास्कर्य और दीप्ति वही जान पड़ती है जो कभी रही होगी क्योंकि जिस श्वेत पाषाण का इसमें प्रयोग हुआ है, वह बहुत विचार और परीक्षण के साथ काम में लिया गया है। जिन शिल्पियों ने इस मंदिर का निर्माण किया, वे विश्वकर्मीय विद्या को प्रतिस्पर्द्धा की तरह प्रयोग लाने के प्रबल पक्षधर थे। इसी कारण दिक्पालों और उनके आजू-बाजू सुर-सुंदरियों का तक्षण किया गया। उनके अंग-प्रत्यंग को पूरी तरह ताैल कर उभारने का प्रयास हुआ है। दिशानुसार दिक्पालों के उनकी दोनों भुजाओं में आयुध बनाए थे और नीचे तालानुसार उनके वाहन को भी उकेरा गया है।
सुर-सुंदरियों के निर्माण कुछ इस तरह हुआ है कि वे गतिमयता के साथ प्रदर्शित होती हैं। पद, कटि, अंगुलियों, कलाइयों, भुजाओं, गलाें, कान, नाक से लेकर सिर तक आभूषणों को धारण करवाया गया है। केश विन्यास बड़ा ही रोचक है। कहीं अलस-कन्या सी अंग रचना तो कहीं त्रिभंगी रूप में स्थानक रूप। आंखों की बनावट भी अनुपम लगती है। उनके इर्द-गिर्द सिंह-शार्दूलों को उछलकर कायिक वेग को साकार करने का जो प्रयास यहां हुआ, वह बहुत ही राेमांचकारी लगता है। मंदिर के पीछे प्रधान ताक में सूर्य की अरुण सारथी सहित सप्ताश्व रथ पर सवार प्रतिमा है जबकि उत्तर-दक्षिणी ताकों में स्थानक सूर्य की प्रतिमाएं हैं। इन पर आकाशीय देवताओं, नक्षत्रों का मानवीकरण करते हुए मूर्त्यांकन किया गया है। शिल्प और स्थापत्य की कई विशेषताएं और भी गिनाई जा सकती हैं।
यह सूर्यमंदिर सालों पहले सूर्य आदि ग्रहों व नक्षत्रों के आधार पर आने वाले समय के सुकाल-अकाल होने की उद्घोषणा का केंद्र रहा है। यह मान्यता मेवाड़ के लगभग सभी सूर्य मंदिरों के साथ जुड़ी है, मगर अब ऐसी उद्घोषणाएं लोकदेवताओं के देवरों में होने लगी है। न यहां मगविप्र रहे न ही ज्योतिषीय अध्ययन होता है। वर्तमान में यह मंदिर राजस्थान पुरातत्व विभाग के अधिकार में है। विभाग के अधीक्षक मुबारक हुसैनजी का आभार कि उन्होंने इस संबंध में देर तक चर्चा की और चित्र उपलब्ध करवाए तो लिखने का मन बन गया। कभी फुर्सत मिले तो इस सूर्यायतन को भी देखियेगा और फिर स्वयं कहियेगा कि इसे शिल्पकारों ने बनाया या शिल्पकारों को इसने बनाया। - डॉ. श्रीकृष्ण 'जुगनू'
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