विष्णु मंदिर | किश्नियावाड | उदयपुर
कुंडेश्वर शिव मंदिर देखते समय मुझे उदयपुर के प्रसिद्द इतिहासकार गौरीशंकर ओझा साब को यहाँ से एक गुहिल राजा अपराजित से सम्बंधित सातवी सदी की प्रशस्ति प्राप्त होने तथा प्रशस्ति के अनुसार राजा अपराजित के सेनापति वराहसिंह की धरमपत्नी यशोमती द्वारा 661 इसवी में एक विष्णु मंदिर बनाने के उल्लेख के बारे में याद आ रहा था और मै उस प्राचीन मंदिर को देखना चाहता था और उसके लिए मैंने कुंडेश्वर मंदिर में स्थानीय निवासियों से विष्णु मंदिर के बारे में पूछा भी था किन्तु कोई भी मुझे मंदिर का सही पता नहीं बता पाया जिसके कारण मै वो मंदिर उस दिन नहीं देख पाया था| बाद में प्रसिद्द इतिहासकार डा श्री कृष्ण जुगनू जी तथा फेसबुक पर उदयपुर -वन टू आल ग्रुप का संचालन करने वाले श्री शरद लोढा जी ने अवगत करवाया की वो प्राचीन विष्णु मंदिर, कुंडेश्वर शिव मंदिर से एक किलोमीटर पहले है, मै पुन वहां गया और किश्नियावाड गाँव में स्थित हनुमान जी के मंदिर से आगे लाल बाग़ फार्म हाउस के पास में से ऊपर जाने वाले रास्ते से थोडा आगे जाकर पहाड़ी की तलहटी में उस प्राचीन मंदिर को खोज ही लिया |
मै बता नहीं सकता हु की इस प्राचीन मंदिर को देख कर मुझे कितनी ख़ुशी हुई| सातवी सदी का एक मंदिर जो तेरह सौ वर्ष पुराना है और एकदम खंडहर हालत में आज भी इतिहास के प्रमाण के रूप में आपके सामने मौजूद है| पंचायतन शैली में बने इस मंदिर के चारो तरफ बने चार मंदिरो में से पीछे के दोनों मंदिरो के शिखर नष्ट हो चुके है| आगे के बने दोनों मंदिर भी खंडहर हो चुके है| मुख्य मंदिर ऊँची जगती पर बना हुवा है | गर्भ गृह में काले पत्थर की विष्णु जी की मूर्ति है मुझे बिलकुल जावर में स्थित रमास्वामी के मंदिर की तरह प्रतीत हुई| मंदिर के समीप ही प्राचीन कुवा और बावड़ी है जो अपेक्षाकृत छोटी है| स्थानीय भाषा में इस भव्य मंदिर को बने भव (एक हजार साल)गुजर चूका है| ये मंदिर मेवाड़ के सम्पूर्ण गुहिल वंश के इतिहास का साक्षी है | अब इसे तत्काल संरक्षण की दरकार है| वर्तमान में भी मंदिर में निरंतर पूजा पाठ होता है इसवाल गाँव के राधेश्याम जी जोशी इसके पुजारी है जो मंदिर आने वाले प्रत्येक व्यक्ति को बड़े प्रेम से मंदिर के दर्शन करवाते है साथ ही इसकी मरम्मत और संरक्षण के लिए सरकारी सहायता के लिए प्रयास करने की विनती भी करते है|
मै बता नहीं सकता हु की इस प्राचीन मंदिर को देख कर मुझे कितनी ख़ुशी हुई| सातवी सदी का एक मंदिर जो तेरह सौ वर्ष पुराना है और एकदम खंडहर हालत में आज भी इतिहास के प्रमाण के रूप में आपके सामने मौजूद है| पंचायतन शैली में बने इस मंदिर के चारो तरफ बने चार मंदिरो में से पीछे के दोनों मंदिरो के शिखर नष्ट हो चुके है| आगे के बने दोनों मंदिर भी खंडहर हो चुके है| मुख्य मंदिर ऊँची जगती पर बना हुवा है | गर्भ गृह में काले पत्थर की विष्णु जी की मूर्ति है मुझे बिलकुल जावर में स्थित रमास्वामी के मंदिर की तरह प्रतीत हुई| मंदिर के समीप ही प्राचीन कुवा और बावड़ी है जो अपेक्षाकृत छोटी है| स्थानीय भाषा में इस भव्य मंदिर को बने भव (एक हजार साल)गुजर चूका है| ये मंदिर मेवाड़ के सम्पूर्ण गुहिल वंश के इतिहास का साक्षी है | अब इसे तत्काल संरक्षण की दरकार है| वर्तमान में भी मंदिर में निरंतर पूजा पाठ होता है इसवाल गाँव के राधेश्याम जी जोशी इसके पुजारी है जो मंदिर आने वाले प्रत्येक व्यक्ति को बड़े प्रेम से मंदिर के दर्शन करवाते है साथ ही इसकी मरम्मत और संरक्षण के लिए सरकारी सहायता के लिए प्रयास करने की विनती भी करते है|
कुंडेश्वर शिव मंदिर से एक किलोमीटर पहले किशनियावाड गांव में स्थित इस प्राचीन विष्णु जी के मंदिर के निर्माण के सम्बन्ध में गुहिल शासक अपराजित से सम्बंधित सातवी सदी (661 इसवी) का एक शिलालेख उदयपुर राज्य के प्रसिद्द इतिहासकार गौरीशंकर हीराचंद ओझा को प्राप्त हुवा था जिसे उन्होंने उदयपुर के विक्टोरिया हाल के संग्राहालय में रखवाया था| जो की वर्तमान में शायद सिटी पैलेस में स्थित पुरातत्व एवं संग्रहालय विभाग के सग्रहालय में रखा हुवा है|
प्राप्त प्रशस्ति का सारांश ओझा साब के अनुसार “ गुहिल वंश के तेजस्वी राजा अपराजित ने सब दुष्टों को नष्ट किया और अनेक राजा उसके आगे सर झुकाते थे|उसने शिव (शिव सिंह) के पुत्र महाराज वराहसिंह को जिसकी शक्ति कोई नहीं तोड़ सका,जिसने भयंकर शत्रुओ को परास्त किया और जिसका उज्जवल दसो दिशाओं में फैला हुवा था अपना सेनापति बनाया|अरुंधती के सामान विनाय वाली उस (वराह सिंह) की स्त्री यशोमती ने लक्ष्मी, यौवन और वित्त को क्षणिक मान कर संसार रूपी विषम समुद्र को तैरने के लिए नावृपी कैटभरिपु (विष्णु) का मंदिर बनवाया|दामोदर के पौत्र और ब्रम्हचारी के पुत्र दामोदर ने उक्त प्रशस्ति की रचना की, और अजित के पौत्र तथा वत्स के पुत्र यशोभट ने उसे खोदा| डा ओझा के अनुसार इस लेख की कविता बड़ी मनोहर है और उसकी कुटिल लिपि को लेखक ने ऐसा सुन्दर लिखा, और शिल्पी ने इतनी सावधानी से खोदा है की वह लेख छापे में छपा हो, ऐसा प्रतीत होता है|
डा श्री कृष्ण जुगनू जी ने भी अपनी पुस्तक मेवाड़ का प्रारम्भिक इतिहास में कुंडेश्वर
मंदिर से प्राप्त प्रशस्ति का मूल संस्कृत पाठ तथा उसका अनुवाद दिया है|
मंदिर से प्राप्त प्रशस्ति का मूल संस्कृत पाठ तथा उसका अनुवाद दिया है|
जय जय ....शरद व्यास
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