मेवाड़ का एक गुहिल
शासक जिसने दिल्ली के सुलतान इल्तुतमिश के दांत खट्टे कर दिए थे और अपनी तलवार के बल पर अपने
समकालीन शासको के मन में भय उत्पन्न कर दिया
था किन्तु जिसे भारतीय इतिहास ने विस्मृत कर दिया|
मित्रो आज मै बात कर रहा हु मेवाड़ के एक ऐसे रणरसिक गुहिल शासक
की जिसने दिल्ली के सुलतान इल्तुतमिश के दांत खट्टे कर दिए थे और अपने समकालीन
शासको में अपने नाम का इतना खौफ उत्पन्न कर दिया था की वो उसके नाम मात्र से कापते
थे| सही मायनों में हिन्दुस्तान में मेवाड़ के गुहिलो के शासन
का परचम भी उसी योद्धा ने फहराया था|
आज मै बात कर रहा हु रावल जैत्रसिंह की जो इसवी सन 1213
-1253 तक मेवाड़ के शासक थे जिन्हें जयतल, जयसल, जयवंत सिंह, जीतसिंह के नाम से भी
जाना जाता था| जिन्होंने अपनी तलवार के बल पर अपने आस पास के समकालीन
सभी शासको को पराजित किया था| उदयपुर के पास स्थित चिरवे
गाँव के शिलालेख के अनुसार “जैत्रसिंह शत्रु राजाओं के लिए प्रलयमारुत के सदृश था,
उसको देखते ही किसका चित्त न कांपता ? मालवावाले, गुजरातवाले, मारवाड़ निवासी और
जंगलदेश वाले, तथा मलेच्छो का अधिपति सुलतान भी उसका मानमर्दन न कर सका| तलवार के धनी जैत्रसिंह के समकालीन धोलका (गुजरात) के शासक राणा वीरधवल के
मंत्रियो वास्तुपाल और तेजपाल का कृपापात्र आचार्य जयसिंह सूरी ने अपने ग्रन्थ “हम्मीरमदमर्दन”
नाटक में वीरधवल से कहलाता है की “शत्रुराजाओं के आयुषरूपी पवन का पान करने के
लिए चलती हुई कृष्ण सर्प जैसी तलवार के अभिमान के कारण मेद्पाट (मेवाड़) के राजा
जयतल ने हमारे साथ मेल न किया|” चीरवा के और आबू के शिलालेखो के अनुसार जैत्र सिंह
द्वारा किये गए प्रमुख युद्धों का ब्यौरा कुछ इस प्रकार है
गुजरात की पराजय और कोटडा पर अधिकार
चीरवे के शिलालेख के अनुसार ईस्वी सन 1242 – 43 में
जैत्रसिंह ने गुजरात के शासक त्रिभुवनपाल को पराजित करके कोटडा पर अधिकार कर लिया
था जिसमे जैत्रसिंह के नागदा के तलारक्ष योगराज के पुत्र महेंद्र का पुत्र बालाक
जैत्रसिंह के आगे लड़ता हुवा मारा गया|
नाडोल पर प्रभुत्व तथा वैवाहिक संबंध
रावल समरसिंह के आबू के शिलालेख के अनुसार “जैत्रसिंह
ने नाडोल को जड से उखाड़ डाला” | नाडोल के चौहान शासक
कीर्तिपाल ने कुछ समय के लिए मेवाड़ पर अधिकार किया था जिसका प्रतिकार लेने के लिए
जैत्रसिंह ने नाडोल पर चढ़ाई की और कीर्तिपाल के पोते और तत्कालीन नाडोल और जालोर
राज्य के शासक उदयसिंह को परास्त किया तथा उदयसिंह ने अपनी पौत्री तथा चाचिगदेव की
पुत्री रुपादेबी का विवाह जैत्र सिंह के पुत्र तेजसिंह के साथ कर मेवाड़ के साथ
अपने राज्य का प्राचीन शत्रुता समाप्त की|
मालवा के परमार शासको का मानमर्दन
चीरवे के शिलालेख के अनुसार जैत्रसिंह ने नागदा के
तलारक्ष योगराज के पुत्र क्षेम को चित्तौड़ की तलारक्षता प्रदान की थी और उसके छोटे
पुत्र मदन ने उत्थुणक (अरथुना-बाँसवाड़ा)
जो की मालवा के परमारों के अधीन था| मालवा के शासक जैत्रमल्ल जो
की देवपाल का पुत्र था और जयतुगीदेव के नाम से जाना जाता था तथा जिसे पंचगुडलिक की
उपाधि भी प्राप्त थी, से युद्ध कर मेवाड़ की सेना का बल प्रगट किया था| बाद में गुहिलवंशी सामंत सिंह के वंशजो ने ही परमारो को परास्त कर अरथुना पर
कब्जा कर उसे वागड़ राज्य में मिलाया था|
जलालुद्दीन मंगबरनी की सेना को परास्त करना
रावल समरसिंह के आबू के शिलालेख के अनुसार “
सिन्धुको की सेना का रुधिर पी कर मत बनी हुई पिशाचनियो के आलिंगन से आनंद से मग्न
पिशाच रणखेत में जैत्रसिंह के भुजबल की प्रशंसा करते है|” शिलालेख से ये ज्ञात होता
है की जैत्रसिंह ने सिंध की किसी सेना को नष्ट किया था किन्तु किस सेना को नष्ट
किया था इसके बारे में हमें फ़ारसी तवारीखो से पता चलता है की ये सेना जलालुद्दीन
मंगबरनी की थी जो खयासखा के नेतृत्व में नहरवाले (अन्हील्वाड़े) पर आक्रमण करने के
लिए भेजी गई थी और बड़ी लुट के साथ मेवाड़ के रास्ते से लौट रही थी| शिलालेख में सिधुको की सेना को नष्ट करने के बारे में लिखा गया है अत
सिन्धुको की सेना के अन्हीलवाडे से लौटते समय ही उस पर जैत्रसिंह की सेना ने
आक्रमण किया होगा|
भूताला की घाटी में सुल्तान शमशुद्दीन इल्तुतमिश के
दांत खट्टे होना
चीरवे के शिलालेख तथा भड़ूच (गुजरात) के जैन मुनिसुव्रत
के मंदिर के आचार्य जयसिंह सूरी के ग्रन्थ हम्मीरमदमर्दन में सुल्तान इल्तुतमिश के
साथ मेवाड़ के रावल जैत्रसिंह के भुताला घाटी के युद्ध के बारे में जानकार प्राप्त
होती है| इस युद्ध के बारे में डा श्री कृष्ण जुगनू ने अपनी पुस्तक
मेवाड़ का प्रारंभी इतिहास में रोंगटे खड़े करने वाला वर्णन किया है| डा जुगनू लिखते है “यह इस्लामी सल्तनत के खिलाफ मेवाड़ का पहला संघर्ष
था...सुलतान ने गुहिलो के अब तक के सबसे ताकतवर शासक को कैद करने की रणनीति अपनाई|यह योजना पृथ्वीराज चौहान के खिलाफ मोहम्मद गोरी की निति से कोई अलग नहीं थी|उसने तत्कालीन मदारिया-मियांला, केलवा और देवकुलपाटन के रास्ते नान्देशमा के
एक नवउधापित सूर्य मंदिर को तोडा,रास्ते में एक जैन मंदिर को भी धराशायी किया| नान्देशमा का सुर्यातन मेवाड में टूटने वाला पहला मंदिर था| तूफ़ान की तरह बढ़ती सल्तनत सेना को जैत्रसिंह ने मुहतोड़ जवाब देने का प्रयास
किया|तलारक्ष योगराज के ज्येष्ठ पुत्र पमराज तांतेड के
नेतृत्व में एक बड़ी सेना ने हरावल में रहकर भूताला के घाटे में युद्ध किया| हालांकि वो बहोत वीरता से लड़ा मगर खेत रहा|उसने जैत्रसिंह पर
आंच नहीं आने दी|गुहिल ही नहीं, चौहान,चंदाणा, सोलंकी,परमार आदि
वीरोसे लेकर चारणों और आदिवासी वीरो ने भी इस सेना का जोरदार मुकाबला किया| गोगुन्दा से नागदा पहुचने वाली घाटी में यह घामासान हुवा|लहराती शमशीरो की लपलपाती जबानो ने एकदुसरे के खून का स्वाद चखा और जो धरती
बचपन से ही सहारा देकर माँ कहलाती है, उसने जवान खून को अपनी छाती पर बहते हुवे
झेला|इसमें जैत्र सिंह को एक शिकंजे के तहत घेर लिया गया
किन्तु उसके योद्धाओ ने उसे महफूज रखा और पास ही नागदा के एक साधारण घर में छिपा
दिया| अल्तुतमिश का गुस्सा शांत नहीं हुवा|उसने आगे बढ़ कर नागदा को घेर लिया|एक एक घर की तलाशी
ली गई|हर घर सुनसान था| उसने एक एक घर को
फुकने की मुनादी कर दी, नागदा के सुन्दरतम एक एक मंदिरों को बुरी तरह से तोडा गया|उसके सैनिको ने आपनी खीज का बदला एक एक बुत से लिए और इस तरह तोडा फोड़ा की बाद
में कभी जोड़ा न जा सके|मगर सुलतान को हासिल
कुछ भी नहीं हुवा| वह न केवल हताश हुवा बल्कि गुजरात की और भी बढ़ नहीं
सका और गुजरात सुरक्षित रहा|सुलतान हाफ गया था
उसे शेष सेना के साथ दिल्ली की और लौट जाना पड़ा|
विडंबना देखीये की इतने महान शासक के सम्बन्ध में हमें भारतीय इतिहास में बिलकुल जानकारी प्राप्त नहीं होती है | संभवत इसका कारण ये रहा होगा की इल्तुतमिश की विफलता के कारण इल्तुतमिश के दरबारी इतिहासकारों ने इस युद्ध का वर्णन करना मुनासिब न समझा हो तथा इसी प्रकार जैत्रसिंह के समकालीन शासक जो उससे परास्त हुवे थे उन्होंने भी जैत्र सिंह का उल्लेख अपने शिलालेखो में नहीं किया होगा| जैत्रसिंह के सम्बन्ध में हमें नान्देशमा के चारभुजा मंदिर के समीप स्थित सूर्यमंदिर के एक स्तम्भ से एक शिलालेख (1222 ईस्वी)प्राप्त होता है तथा दूसरा एकलिंग जी के मुख्य मंदिर के सामने स्थित नदी की प्रतिमा के पास रक छोटे से स्मारक शिला लेख (1213)जैत्रसिंह से सम्बंधित है | इसके अलावा जैत्र सिंह से सम्बंधित आहाड़ में रचित दो जैनग्रन्थ जो की ताड़ पत्रों पर निर्मित किये गए थे गौरीशंकर ओझा के अनुसार खम्भात नगर के शान्तिनाथ के मंदिर में विद्यमान है जो की संभवत वहा से किसी संग्रहालय में रखवा दिए गए होंगे| जैत्रसिंह के युध्हो के संभंध में हमें केवल चीरवा के और रावल समर सिंह के आबू के शिलालेखो से जानकारी प्राप्त होती है|
मित्रो जब भी मेवाड़ के इतिहास के बारे में पढ़े या लिखे या किसी से बात करे तो मेवाड़ के महान शासक रावल जैत्रसिंह की स्मृति अवश्य करे|
जय जय .....शरद व्यास ....02.06.18 - उदयपुर
विडंबना देखीये की इतने महान शासक के सम्बन्ध में हमें भारतीय इतिहास में बिलकुल जानकारी प्राप्त नहीं होती है | संभवत इसका कारण ये रहा होगा की इल्तुतमिश की विफलता के कारण इल्तुतमिश के दरबारी इतिहासकारों ने इस युद्ध का वर्णन करना मुनासिब न समझा हो तथा इसी प्रकार जैत्रसिंह के समकालीन शासक जो उससे परास्त हुवे थे उन्होंने भी जैत्र सिंह का उल्लेख अपने शिलालेखो में नहीं किया होगा| जैत्रसिंह के सम्बन्ध में हमें नान्देशमा के चारभुजा मंदिर के समीप स्थित सूर्यमंदिर के एक स्तम्भ से एक शिलालेख (1222 ईस्वी)प्राप्त होता है तथा दूसरा एकलिंग जी के मुख्य मंदिर के सामने स्थित नदी की प्रतिमा के पास रक छोटे से स्मारक शिला लेख (1213)जैत्रसिंह से सम्बंधित है | इसके अलावा जैत्र सिंह से सम्बंधित आहाड़ में रचित दो जैनग्रन्थ जो की ताड़ पत्रों पर निर्मित किये गए थे गौरीशंकर ओझा के अनुसार खम्भात नगर के शान्तिनाथ के मंदिर में विद्यमान है जो की संभवत वहा से किसी संग्रहालय में रखवा दिए गए होंगे| जैत्रसिंह के युध्हो के संभंध में हमें केवल चीरवा के और रावल समर सिंह के आबू के शिलालेखो से जानकारी प्राप्त होती है|
मित्रो जब भी मेवाड़ के इतिहास के बारे में पढ़े या लिखे या किसी से बात करे तो मेवाड़ के महान शासक रावल जैत्रसिंह की स्मृति अवश्य करे|
जय जय .....शरद व्यास ....02.06.18 - उदयपुर
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